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शुक्रवार, 1 मार्च 2013

कुम्भ : एक पक्ष ये भी !

               
चित्र गूगल के साभार 

           महाकुम्भ का पर्वकाल बीत गया और वहां पर महीने भर से अधिक ढेरा डाले हुए कल्पवासी , सन्यासी, महामंडलेश्वर  और विभिन्न अखाड़ों के लोग अब तक जा  चुके है. कुम्भ हमारी धार्मिक आस्था के अनुसार मनुष्य जीवन के तमाम पुन्योंको देने वाला होता है और यही कारण  है कि हर पर्वकाल पर करोडों लोगों ने स्नान किया , पुण्य कमाया . सिर्फ भारतीय ही नहीं बल्कि विदेशी भी इस बात में आस्था रखते वाले थे और देश विदेश की सारी सरहदें इसके आगे बौनी हो गयीं थीं . इनके  मन में आस्था थी और हमारी धार्मिक मान्यताओं के अनुरूप ये वर्षों के तप के समान पुण्यदायी होता है. 
                 अपने पापों की गठरी लाकर उस पुण्यदायी कुम्भ के पर्व पर स्नान करके नदी के पावन जल में समर्पित करते चले जाते हैं (ऐसी हमारी मान्यता है ) किन्तु इसके साथ ही कुछ ऐसे पुण्य कमाने वाले आये थे जो अपने सिर के बोझ को उतरने के लिए आये थे और वे अपने अपने बुजुर्गों को इसा कुम्भ के मेले में सिर्फ छोड़ कर जाने के पवन उद्देश्य को लेकर ही आये थे. उनसे मुक्ति मिल गयी ठीक वैसे ही जैसे कुछ लोग अपने जाने अनजाने पापों से मुक्त होने के लिए यहाँ कुम्भ स्नान के लिए आये थे. पूरे देश से करोड़ों श्रद्धालु यहाँ आये थे और बुजुर्ग तो खास तौर पर इस काल को अपने जीवन का सौभाग्य समझते हैं . बड़ी ख़ुशी से वे अपने घर चले होंगे और फिर ..........?  ये छोड़े गए बुजुर्ग देश के विभिन्न प्रान्तों से आते हैं और उनकी भाषा बोली सबके समझ नहीं आती और वे भी खुद भी स्थानीय भाषा या बोली नहीं समझ पाते है . वे बुजुर्ग बेचारे क्या ये जानते हैं कि  उनके बेटे , बहू या बेटी उनको यहाँ कुम्भ स्नान के लिए नहीं बल्कि उनको यहाँ छोड़ कर उनसे मुक्ति पाने के लिए आये थे. 
                  फिल्मों में पहले देखने को मिलता था कि  मेले में बच्चे बिछुड़ गए और फिर वे अनाथ या दूसरों के द्वारा पाले  गए लेकिन यह परिकल्पना फ़िल्म वाले भी नहीं सोच पाए थे कि  अपने माँ बाप को कुम्भ के मेले में छोड़ जाओ और फिर उनके भार से मुक्त . गाँव में जाकर बता दिया कि  वे मेले में खो गये लेकिन प्रश्न यह कि  वे खो कर गए कहाँ? 
                   ये छोड़े गए बुजुर्ग एक या दो नहीं बल्कि इनकी संख्या अर्ध शतक से भी अधिक है . जिन्हें खोये हुए व्यक्तियों के शिविर में रखा गया है कि  उनके घर वाले उन्हें खोजते हुए आ जाएँ और उनको उनके घर भेज  सके. वे अपनी सूनी आँखों से अपने घर वालों का इन्तजार कर रहे हैं और उनमें से कुछ को तो ये भान  भी नहीं है कि वे खोये नहीं है बल्कि उनके घर वाले उन्हें लाये ही इसलिए थे. कुछ को इस बात का भान अब हो गया है क्योंकि घर में उनके कारण होने वाली रोज रोज की कलह से वे आजिज जो थे. ऐसा कैसे जाना  क्योंकि पूछने पर वे अपनी गीली आँखें बार बार पौंछ  रहे है. और फिर वे  शून्य में निहारने लगते है। 
                   ये सभी निम्न मध्यम वर्गीय परिवार के बुजुर्ग हैं  तब ये प्रश्न उठते हैं हमारे जेहन में ---
क्या उनके घर वाले गरीबी से त्रस्त होकर इन्हें यहाँ छोड़ गए ?
क्या गरीबी के आगे हमारी संवेदनाएं मर चुकी हैं?
कभी उनहोने ये सोचा कि  क्या उनके माता -पिता इतने समर्थ होंगे कि उनको आराम से पाला  होगा फिर वे क्यों उन्हें कहीं छोड़ कर नहीं चले गये. ?
                  ये वर्ग वृद्धाश्रम में रखने के लिए अपने को समर्थ नहीं पाते  होंगे और इस वर्ग के लिए समाज और उसके मूल्य मायने रखते हैं वे जवाबदेह होते हैं कि अपने बुजुर्गो को किस तरह से रखते हैं? ये बात और है समाज के बदलते मूल्यों के चलते अब कोई किसी के पारिवारिक मामलों में नहीं बोलता लेकिन कटाक्ष करने में आज भी लोग पीछे नहीं हटते हैं और इसी लिए खो गए एक ऐसा उत्तर है जिसे सुनकर लोग निरुत्तर हो जायेंगे लेकिन क्या वाकई हम सब खामोश होकर उनकी इस दलील को स्वीकार कर रहे है. ? वे प्रश्न उठा रहे हैं  कि  कैसे हम इतने गैर जिम्मेदार हो जाते हैं ? अगर वे बुजुर्ग को साथ लेकर जाते हैं तो क्यों नहीं वे उसके साथ अपने घर और परिवार के बारे में जानकारी उन्हें लिख कर दे देते हैं . ताकि अगर वे भटक भी जाएँ तो वहां की व्यवस्था उसके आधार पर उन्हें अपने परिजनों से मिलवा सकें . उनके पास अपने घर के जिम्मेदार व्यक्ति का फ़ोन नंबर  भी उनको दे सकते हैं ताकि उनसे सम्बन्ध साधा जा सके. लेकिन ये तो तब किया जाता है जब हम इस स्थिति को टालने के लिए सोच रहे हों . हम उन्हें सड़क पर फ़ेंक आयें या फिर मेले में छोड़ आये लेकिन क्या परिवार से शेष सभी सदस्य इतने निष्ठुर हो जाते हैं कि अपने घर के बुजुर्गों को इस  तरह से छोड़े जाने के निर्णय को स्वीकार कर चुप लगा जाते हैं  ?